जिंदगी

 उम्र गुजरी है मुश्किलों के दौर से

हर हार का शिकार किया है ऐसा लगता है

तमाम् शिकायते हों जिंदगी से

कोई हाल पूछ लेता है अच्छा लगता है


हर किसी की अपनी तकलीफें

हर किसी का अपना सफरनामा

कुछ यों कहानी अपनी भी

दिल को हर बार समझाया और थामा


दोष क्यों दूसरों को दें

कम अक़्ली हमारी ही थी

रिश्तों की दास्तां फिर कभी

हर गलती हमारी ही थी


तुम इतना क्यों इतराने लगे

मेरे शौके- जुनून से

हम तो बस शोला भर थे

तुम्हें तो बस्ती जलानी थी


आवेग हममें था अब भी है

आग तो यों ही नही जलती बुझती

जंगल की आग क्या कहूँ

दावानल बन जाती है


यों किनारों का इश्क 

'पर्वतीय' कर नही पाया

राह उतार की ही उत्तम

'पर्वतीय' चढ़ नही पाया।।


- रमेश पपनोई 'पर्वतीय'

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